BBCहिंदीORG पड़ताल: हिंदू-मुसलमान नफ़रत की धीमी आंच पर उबलता बिहार

बिहार का सीतामढ़ी शहर. दशहरे की धूमधाम के बाद 20 अक्तूबर को दुर्गा की एक प्रतिमा विसर्जन के लिए ऐसे इलाक़े से ले जाई जाने लगी जहां से उसे जाने की अनुमति नहीं थी क्योंकि प्रशासन उस इलाक़े को संवेदनशील मानता है.
विसर्जन जुलूस पर पथराव की ख़बर आई और फिर प्रतिमा विसर्जन के लिए दूसरे रास्ते से ले जाई गई. लेकिन इसकी सूचना जैसे ही शहर के अन्य हिस्सों में फैली, बड़ी संख्या में लोगों ने उस मुहल्ले पर हमला कर दिया.
दोनों तरफ़ से पथराव हुआ. पुलिस ने मामले में दख़ल दिया, इंटरनेट बंद कर दिया गया और पुलिस ने दावा किया कि उसने जल्द ही स्थिति पर नियंत्रण कर लिया.
लेकिन इन सबके बीच लौटती भीड़ ने 80 साल के एक बुजुर्ग ज़ैनुल अंसारी को पीट-पीट कर मार डाला. यही नहीं सबूत मिटाने के लिए लाश को जलाने की कोशिश की गई.
पुलिस को अधजली लाश बरामद हुई. सीतामढ़ी के पुलिस अधीक्षक विकास बर्मन ने बीबीसी को बताया, "इस घटना के बाद असामाजिक तत्वों ने शव को लकड़ी डालकर जलाने की कोशिश की. बाक़ी तो जाँच में पता चलेगा." पुलिस ने इस मामले में 38 लोगों को गिरफ़्तार किया है.

ये है आज का बिहार. क़रीब तीन दशक पहले, 1989 में भागलपुर में सांप्रदायिक हिंसा हुई थी. उस हिंसा में 1100 से ज़्यादा लोग मारे गए थे. लेकिन इसके बाद लंबे समय तक बिहार में इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़कर सांप्रदायिक हिंसा देखने को नहीं मिली.

क्या बदल गया, कैसे बदल गया?

जब से नीतीश कुमार ने भाजपा के साथ दूसरी बार गठबंधन करके 2017 में सरकार बनाई है, स्थितियाँ बदल गई हैं. इस साल रामनवमी के आसपास कई ज़िलों में हिंसा हुई थी, इन्हीं में से एक था औरंगाबाद.
इस शहर के नवाडीह इलाक़े में एक संकरा रास्ता नईम मोहम्मद के घर तक जाता है. टूटे-फूटे घर और अस्त-व्यस्त कमरे में बेड पर बैठे नईम मोहम्मद बात करते-करते फूट-फूट कर रो पड़ते हैं. कहते हैं- भीख मांगकर खा रहे हैं और भीख मांगकर इलाज करा रहे हैं. वो कहते हैं कि उनके शहर ने पहले कभी ऐसा नहीं देखा जो इस साल रामनवमी के दौरान हुआ.
भीड़ आक्रामक थी, ग़ुस्से में थी. नारेबाज़ी कर रही थी, हाथों में तलवारें थी और आंखों में नफ़रत. प्राइवेट एम्बुलेंस चलाने वाले नईम मोहम्मद जब खाने के लिए घर जा रहे थे तो एक गोली आकर उन्हें लगी.
ठीक-ठाक ज़िंदगी बसर करने वाले नईम मोहम्मद अब चल-फिर नहीं पाते. वो पूछते हैं- "हमारी क्या ग़लती थी. गोली हमें ही क्यों लगी. हमारा परिवार कैसे चलेगा. हमारी ज़िंदगी कैसे कटेगी".
इस साल रामनवमी के आसपास बिहार के कई ज़िलों में सांप्रदायिक हिंसा की घटनाएँ हुईं. उस बात को सात महीने हो चुके हैं. औरंगाबाद के अलावा नवादा, भागलपुर, मुंगेर, सिवान, रोसड़ा और गया जैसे कई शहरों में हिंसा हुई.
दुकानें लूटी गईं. दुकानें जलाई गईं, इनमें से ज़्यादातर दुकानें मुसलमानों की थीं. नारेबाज़ी हुई, पाकिस्तान जाने के नारे लगे, टोपी उतारने के नारे लगे, वंदे मातरम और जय श्रीराम के नारे लगे, मुस्लिम इलाक़ों में हिंदुओं के धार्मिक जुलूस पर पथराव भी हुए.
बिहार में पहली बार ऐसा हुआ, जब एक साथ इतने ज़िले सांप्रदायिक हिंसा की चपेट में आए.

अलग-अलग शहर, लेकिन पैटर्न एक

बिहार के औरंगाबाद में ईदगाह की ज़मीन पर बजरंग दल का झंडा लगा दिया गया. जुलूस को उस ओर मोड़ने की कोशिश की गई जहां घनी मुसलमान आबादी थी. भड़काऊ नारे लगाए गए और बड़ी संख्या में लोग तलवार लेकर सड़कों पर उतरे. चुन-चुन कर मुसलमानों की दुकानें जलाई गईं.
इसी तरह, नवादा में मूर्ति तोड़ने और पोस्टर फाड़ने के आरोपों के साथ तनाव शुरू हुआ. वहीं, रोसड़ा में स्थानीय जामा मस्जिद पर हमला हुआ और मस्जिद पर भगवा झंडा फहरा दिया गया. आरोप है कि चैती दुर्गा विसर्जन के समय मूर्ति पर एक मुसलमान घर से चप्पल फेंकी गई. फिर पथराव, तोड़फोड़ और आगज़नी हुई.
भागलपुर में 'हिंदू नववर्ष' को लेकर रैली निकली, हिंदू नववर्ष पर रैली निकालने का चलन बिल्कुल नया है. इस रैली में नफ़रत फैलाने वाले नारे लगे, नारेबाज़ी हुई और तलवार लेकर जयघोष हुआ. पत्थरबाज़ी हुई, दुकानों को लूटा गया और कई दुकानों में आग लगा दी गई.
इन सभी इलाक़ों में बीजेपी, विहिप और बजरंग दल से जुड़े नेताओं और कार्यकर्ताओं पर गंभीर आरोप लगे हैं. औरंगाबाद में बीजेपी नेता अनिल सिंह जेल गए और रिहा हुए तो ज़िला उपाध्यक्ष बना दिए गए. नवादा में तो सांसद और केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह पर ही लोगों को भड़काने के आरोप हैं, हालांकि वो इन आरोपों से इनकार करते हैं.
जब दंगा भड़काने के आरोप में विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल के नेताओं की गिरफ़्तारी हुई तो गिरिराज सिंह उनसे मिलने जेल तक चले गए. इस पर काफ़ी विवाद भी हुआ.
भागलपुर में केंद्रीय मंत्री अश्विनी चौबे के बेटे अर्जित शाश्वत चौबे पर आरोप है कि उन्होंने उस जुलूस का नेतृत्व किया था, जिसके बिना अनुमति मुसलमान बस्ती में घुसने के बाद हिंसा भड़की. अर्जित शाश्वत जेल भी गए.
भागलपुर के सामाजिक कार्यकर्ता उदय कहते हैं, "हर जगह एक जैसा पैटर्न था. एक साथ तलवार लेकर दौड़ते लोग, डीजे पर बजते घृणा फैलाने वाले गाने और नए-नए बहाने से जुलूस निकालना और उसे मुसलमान बहुल इलाकों में ले जाना. हनुमान जी का झंडा लाल से भगवा हो गया. ये हर जगह एक जैसा कैसे हो गया. इसका मतलब है कि इसकी प्लानिंग की गई थी. पूरे बिहार में यही देखने को मिला."
इन सभी जगहों पर रामनवमी और अन्य जुलूसों में डीजे पर भड़काऊ गाने बजाए गए, जिन्हें पूरी तैयारी के साथ स्टूडियो में रिकॉर्ड कराया गया है. गानों के बोल कुछ ऐसे हैं, 'टोपी वाला भी सर झुका के जयश्री राम बोलेगा...'
उदय कहते हैं, "रामनवमी की घटनाओं से हम लोगों को लगा कि एक गाना दंगा करा सकता है. गीत भी दंगाई हो सकता है, इसकी तैयारी दो वर्षों से चल रही थी. ऐसी उत्तेजक आवाज़ दूर-दूर तक लोगों तक पहुँचती थी. इसका प्रयोग बड़े पैमाने पर रामनवमी के दौरान किया गया. आक्रमण की मुद्रा में जयश्री राम का नारा लगाया जाता था."
बिहार में रामनवमी के समय हुई हिंसा के बाद एक स्वतंत्र फ़ैक्ट फ़ाइंडिंग कमेटी ने प्रभावित इलाक़ों का दौरा किया था. कमेटी का कहना है कि पूरे बिहार में एक ही पैटर्न पर हिंसा हुई. कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में तलवारों की ऑनलाइन ख़रीद का ज़िक्र किया था.
बिहार के गृह सचिव आमिर सुबहानी कहते हैं, "तलवारों की ऑनलाइन ख़रीद की कोई जानकारी नहीं है. जुलूस का लाइसेंस देते समय हम ये शर्त लगा देते हैं कि कोई डीजे या ऐसे गाने नहीं बजाए जाएँगे. सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं में कमी आई है और पहले के मुक़ाबले स्थिति बेहतर है."
लेकिन पिछले दो वर्षों में बिहार में सांप्रदायिक हिंसा की कितनी घटनाएँ हुई हैं, इस बारे में उनका कहना था कि फ़िलहाल उनके पास कोई आँकड़ा नहीं है. बीबीसी के बिहार पुलिस से इस बाबत बार-बार संपर्क करने पर अधिकारियों ने सिर्फ़ इतना कहा कि स्थिति पहले से बेहतर है.
हालांकि इस साल अप्रैल में 'इंडियन एक्सप्रेस' ने अपनी एक रिपोर्ट में दावा किया था कि जब से नीतीश कुमार ने बीजेपी के साथ दोबारा गठबंधन करके सरकार बनाई है, सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं में बढ़ोत्तरी हुई है. 'इंडियन एक्सप्रेस' के मुताबिक़ 2012 में बिहार में सांप्रदायिक हिंसा की 50 घटनाएँ हुईं, लेकिन 2017 में हिंदू-मुसलमान टकराव की 270 से ज़्यादा घटनाएं हुईं.
जबकि 2018 के पहले तीन महीनों में ही सांप्रदायिक हिंसा की 64 घटनाएँ बिहार में हुई थीं. रामनवमी के आसपास बिहार के जिन आठ ज़िलों में हिंसा हुई, वे थे- औरंगाबाद, नवादा, भागलपुर, रोसड़ा, मुंगेर, नालंदा, सिवान और गया.

हंगामा, तनाव और ध्रुवीकरण

2019 के चुनाव नज़दीक आ रहे हैं और अयोध्या में राम मंदिर का मामला दोबारा गर्माया जा रहा है, ऐसे में नवादा से सांसद और केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह बढ़-चढ़कर बयान दे रहे हैं.
गिरिराज सिंह का ताज़ा बयान है, "72 साल से जब से कोर्ट में केस गया. कई दशक हो गया और कोर्ट निर्णय नहीं ले रहा है. ये सब्र की सीमा पार कर रहा है. हिंदू शालीन है, इसका ये मतलब नहीं है कि उसके सब्र की परीक्षा ली जाए. अब हिंदुओं का सब्र विस्फोटक होने की स्थिति में आ गया है".
साथ ही उन्होंने इलाहाबाद का नाम बदले जाने के बाद ये सलाह दे डाली कि बिहार में भी मुग़लों से जुड़े शहरों के नाम बदले जाने चाहिए.
यही नहीं बीजेपी नेताओं के इन विवादित बयानों से विहिप और बजरंग दल जैसे संगठनों को संजीवनी मिल रही है. उनके "हिंदुओं को अपमानित" किए जाने के दावे तेज़ होते जा रहे हैं और हिंदुओं में गुस्सा भरने की कोशिश साफ़ दिखती है.
नवादा में विहिप के नेता कैलाश विश्वकर्मा और बजरंग दल के नेता जीतेंद्र प्रताप जीतू से जेल में मिलकर गिरिराज सिंह ने विवाद खड़ा कर दिया था. अब ये दोनों जेल से ज़मानत पर छूट चुके हैं.
वे गिरिराज सिंह की प्रशंसा करते नहीं अघाते. कैलाश विश्वकर्मा कहते हैं कि गिरिराज सिंह ने कोई ग़लत काम नहीं किया.
लेकिन यह पूछे जाने पर कि गिरिराज सिंह अगर जनप्रतिनिधि हैं, तो उन मुसलमान पीड़ितों से मिलने क्यों नहीं गए जिनकी दुकानें जलाई गई हैं, इस पर वे कहते हैं, "मुस्लिम दोषी हैं, इसलिए दोषियों से नहीं मिलना है."
वे साफ़ कहते हैं कि उनके संगठन में मुसलमानों के लिए कोई जगह नहीं हैं. उन्होंने कहा, "संगठन में मुसलमानों को नहीं रखने का कारण ये है कि उनकी सोच अलग है. हमारी सोच अलग है. हम गौ की पूजा करते हैं, वो गौ की हत्या करते हैं."
समस्तीपुर के पास रोसड़ा में आरएसएस का जलवा है. आरएसएस में रोसड़ा के ज़िला मंत्री अर्धेंदु श्री बब्बन कहते हैं कि उन्हें हिंसा से परहेज़ नहीं है, "अहिंसा परमो धर्म: लेकिन धर्म की रक्षा के लिए हिंसा उससे भी बड़ा धर्म है. जब हम पर कुठाराघात होता है, तो हम उसकी रक्षा करते हैं."
पटना सिटी इलाक़े में नवरात्रि की धूम के बीच अपने घर पर हमें मिले विहिप के प्रांतीय मंत्री नंदकुमार को लोकतंत्र की चिंता है. वे कहते हैं, "भारत हिंदू बहुल रहेगा, तभी लोकतंत्र रहेगा. भारत में रहने वाला हर व्यक्ति हिंदू है, मुसलमान भी. भारत की पहचान राम से है, गंगा से है, गीता से है."
'सांप्रदायिकता की प्रयोगशाला'
दरअसल, हिंदी पट्टी में बिहार एक ऐसा क़िला बना हुआ है जिसे बीजेपी अपने बलबूते फ़तह नहीं कर पाई है. बिहार ही एक ऐसा राज्य है, जहाँ बीजेपी अपना मुख्यमंत्री नहीं बना पाई है.
जानकार कहते हैं कि उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के समय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने श्मशान और क़ब्रिस्तान का सवाल उठाकर वोटों के ध्रुवीकरण की कोशिश की और इसमें काफ़ी हद तक सफल भी रहे.
पटना में पीटीआई के ब्यूरो चीफ़ नचिकेता नारायण कहते हैं, "भाजपा बिहार में दूसरे दर्जे के प्लेयर की भूमिका में है. भाजपा चाहती है कि वो अन्य राज्यों की तरह या तो अपने बूते पर या सीनियर पार्टनर के रूप में सरकार में आए."
1989 के भागलपुर दंगों और फिर इस साल रामनवमी के आसपास हिंसा प्रभावित इलाक़ों में काम कर चुके सामाजिक कार्यकर्ता उदय कहते हैं, "ऐसी परिस्थितियों में बीजेपी की टॉप लीडरशिप की भी प्लानिंग होती है. किस मुद्दे को छोड़ें, किसको पकड़ें- इन सबकी तैयारी होती है. इन्हें पता होता है कि कब गाय का मुद्दा लाना है और कब मंदिर का. एक वर्ष एक घटना घटती है, तो दूसरे वर्ष दूसरी. कभी हिंदू नववर्ष के नाम पर तो कभी रामनवमी के नाम पर. ये अलग-अलग प्रतीकों को चुनते हैं, अलग-अलग तिथियों को चुनते हैं."
केंद्रीय मंत्री अश्विनी चौबे के बेटे और भागलपुर के दंगे में भूमिका वजह से गिरफ़्तार हो चुके अर्जित चौबे ने बीबीसी के साथ बातचीत में कहा, "भारत माँ की झाँकी इस देश में निकालने की अनुमति नहीं है, तो कहाँ है. अपने देश में हम वंदे मातरम भी नहीं गा सकते? इस देश में राम और कृष्ण का जयकारा नहीं करेंगे तो कहाँ करेंगे? भारत मां की प्रतिष्ठा विश्व में बने, इसका प्रयास चल रहा है."
एक और बात जो विहिप, आरएसएस, बजरंग दल और बीजेपी नेताओं में कॉमन है, वो है हिंदुत्व की परिभाषा, हिंदू राष्ट्र की अवधारणा और देश के मुसलमानों को सुधर जाने की सलाह.
अर्जित चौबे कहते हैं, "हिंदुत्व जीवन जीने का तरीक़ा है. हिंदू शब्द पर जो राजनीति शुरू हुई है, वो काफ़ी दुर्भाग्यपूर्ण है. देश में रहने वाला हर व्यक्ति हिंदू है. मुसलमान भी हिंदू है. भारत माता की वंदना करना कौन मुसलमान बोलता है कि ग़लत बात है. वंदे मातरम राष्ट्रगीत भी है और संवैधानिक भी है."
भागलपुर में आरएसएस के शीर्ष अधिकारी रह चुके सुबोध विश्वकर्मा कहते हैं, "जीने की पद्धति है हिंदुत्व. मुसलमान भूतपूर्व हिंदू हैं. मुसलमानों को बताना पड़ेगा, समझना पड़ेगा कि वे हिंदू हैं. 18 करोड़ मुसलमानों को समुद्र में तो नहीं फेंक सकते. शक और हूण की तरह अपने आप में समाहित कर सकते हैं."
भागलपुर से कांग्रेस विधायक अजीत शर्मा विधानसभा चुनाव में सुर्ख़ियों में रहे. उन्होंने अर्जित शाश्वत चौबे को मात दी थी. लंबे समय से राजनीति में सक्रिय रहे अजीत शर्मा का कहना है कि "जब-जब बीजेपी को लगता है कि उसके वोटों में कमी आ रही है और जीतने की संभावना नहीं है, वो जान-बूझकर दोनों समुदायों में आग लगाने की कोशिश करती है".
आशंका और भय आम आदमी में भी है. लोगों को लगता है कि बिहार के सियासी घमासान में कहीं आने वाले दिनों में सांप्रदायिक दरार और चौड़ी न हो जाए.
नवादा में नवरात्रि के मौक़े पर मंदिरों में भारी भीड़ है. कई जगह मुख्य सड़कों को आवाजाही के लिए बंद कर दिया गया है. मुस्लिम आबादी के बीच ऐसे ही एक मंदिर के पास अपने घर पर हमें मिले फ़ख़रुद्दीन अली अहमद.
उनकी नाराज़गी अपने सांसद गिरिराज सिंह से है. वे कहते हैं, "मैं गिरिराज सिंह से ये कहना चाहता हूँ कि वे सभी लोगों के प्रतिनिधि हैं इसलिए मुस्लिम समाज को अछूता न समझा जाए. मुस्लिम समाज को भी लेकर चला जाए. इस तरह का माहौल पैदा किया जा रहा है, मुस्लिम समाज को दरकिनार किया जा रहा है ताकि सांप्रदायिक दंगा फैले और हिंदू समाज के वोटर उनके पक्ष में हो जाएँ और वो 2019 में आराम से चुनाव जीत जाएँ."
औरंगाबाद की चिलचिलाती धूप में ग़ुस्से से लाल एक मुस्लिम युवक ख़ालिद कहते हैं, "यहाँ के लोगों से कोई शिकायत नहीं है. बाहरी लोगों ने आकर यहाँ तांडव किया. वे दंगा कराना चाहते है, हिंदू-मुसलमानों में लड़ाई करना चाहते हैं, वोट बटोरना चाहते हैं."
भागलपुर के जोगिंदर यादव मुसलमानों के खेतों में काम करते हैं और उन्हें पीड़ा है कि इन सबके बीच निर्दोष लोग पिस जाते हैं और उनके जैसे लोग रोज़गार के लिए तरस जाते हैं.

नीतीश कुमार की मजबूरी

महागठबंधन को छोड़कर एनडीए में आए नीतीश कुमार की मजबूरी पर तो चर्चा है ही, साथ ही इस पर भी चर्चा है कि जब बिहार के कई ज़िले दंगे की आग में झुलस रहे थे, नीतीश कुमार ने चुप्पी क्यों साध रखी थी?
नीतीश कुमार की मजबूरी और बीजेपी की बिहार में बढ़ती महत्वाकांक्षा के बीच सांप्रदायिक हिंसा की बढ़ती घटनाएँ प्रदेश को किस ओर ले जा रही हैं?
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अपनी धर्मनिरपेक्षता की छवि को बड़े ज़ोर-शोर से पेश करते हैं. राज्य में मुसलमानों को लेकर उनकी कई कल्याणकारी योजनाएँ हैं, जिनका ढोल वे गाहे-बगाहे पीटते रहते हैं, लेकिन बीजेपी नेताओं के भड़काऊ बयान और हिंदू संगठनों की सक्रियता ने उन्हें ऊहापोह में डाल रखा है.
पटना में पीटीआई के ब्यूरो चीफ़ नचिकेता नारायण कहते हैं, "जब पहली बार नीतीश कुमार बीजेपी से अलग हुए, उसी समय नरेंद्र मोदी और अमित शाह का आक्रामक नेतृत्व भाजपा में उभरा, उसके बाद यह बात सामने आ रही थी कि भाजपा अपने दम पर अपना फैलाव करने की कोशिश करेगी. इस बार भाजपा नीतीश की छत्रछाया में रहने में ही संतोष नहीं करेगी. वो अपना हिंदुत्व का एजेंडा बढ़ाने की कोशिश करेगी."
लेकिन नीतीश कुमार की दुविधा ये भी है कि वे अपनी धर्मनिरपेक्षता की छवि से समझौता नहीं करना चाहते और न ही मौजूदा राजनीतिक परिस्थिति में बीजेपी का ही दामन छोड़ने की हालत में हैं.
तो नीतीश कुमार के सामने क्या विकल्प हैं, नचिकेता नारायण कहते हैं, "नीतीश कुमार के लिए यही चारा है कि वे भाजपा के साथ बने रहें. साथ ही प्रशासन या ब्यूरोक्रेसी पर जो पकड़ है, उसके माध्यम से ऐसी घटनाओं को जहाँ तक संभव हो रोकें."

प्रशासन के ज़रिए नियंत्रण के प्रयास

बिहार में सांप्रदायिक हिंसा के मामलों में बड़ी संख्या में बीजेपी के साथ-साथ हिंदू संगठनों के कार्यकर्ता और नेता गिरफ़्तार किए गए. ग़ौर करने वाली बात ये है कि हिंदू संगठनों के नेताओं और कार्यकर्ताओं में पुलिस और प्रशासन से नाराज़गी है.
क्या ये नीतीश कुमार की सख़्ती और सांप्रदायिक हिंसा पर उनके रुख़ को दिखाती है. जानकार थोड़ा 'हाँ' और थोड़ा 'ना' कहते हैं.
नचिकेता नारायण कहते हैं, "बिहार के जिन इलाक़ों में हिंसा हो रही थी, वहाँ कार्रवाई से प्रशासन पीछे नहीं हटा. उस दौरान प्रशासन के हाथ नहीं बांधे गए थे. हिंसा के पैटर्न को नीतीश कुमार ने डिकोड तो कर लिया है, लेकिन वो दाँव खेल रहे हैं कि देखते हैं कहाँ तक चलता है."
शायद यही वजह है कि नीतीश इस मुद्दे पर बीजेपी का कभी खुलकर विरोध नहीं करते. गिरिराज सिंह जब हिंसा भड़काने के अभियुक्तों से जेल में जाकर मिले, तो नीतीश ने दबी आवाज़ में एतराज़ जताया. जब अश्विनी चौबे के बेटे पुलिस और प्रशासन से लुका-छिपा का खेल खेल रहे थे, उस समय भी नीतीश की आवाज़ धीमी ही थी.
लेकिन उनकी पार्टी जनता दल (यूनाइटेड) का कहना है कि सांप्रदायिकता के मुद्दे पर उनकी पार्टी कभी समझौता नहीं करती.
पार्टी प्रवक्ता अजय आलोक कहते हैं, "सांप्रदायिक तनाव बढ़ाने की कोशिश की गई है जिसे हमने कंट्रोल कर लिया. इसलिए इस बार दशहरे के मौक़े पर हम ख़ुद एक्स्ट्रा सजग थे. ख़ुद मुख्यमंत्री मॉनिटर कर रहे थे. मुसलमान ये कह रहे हैं कि हम उनके ख़िलाफ़ हैं क्योंकि हम बीजेपी से मिलकर सरकार चला रहे हैं और हिंदू संगठन ये कह रहे हैं कि हम उनके ख़िलाफ़ हैं. नीतीश कुमार वही काम कर रहे हैं जो राज्य के लिए ठीक है."
लेकिन रोसड़ा की मस्जिद के बाहर मिले इरशाद आलम नीतीश कुमार के रुख़ से काफ़ी नाराज़ हैं. वे कहते हैं, "प्रशासन अगर ठीक रहता तो दंगा नहीं होता. नीतीश कुमार मुसलमानों को इसलिए भरोसा दिला रहे हैं क्योंकि उन्हें मुसलमानों का वोट चाहिए. जब बिहार में 17-18 जगह दंगे हुए, तो नीतीश कुमार का एक भी स्टेटमेंट नहीं आया. वो तो मान ही नहीं रहे थे कि दंगा हुआ."
इरशाद आलम की बात इसलिए भी सच लगती है क्योंकि जनता दल (यू) के प्रवक्ता अजय आलोक ने ये मानने से इनकार किया कि बिहार में सांप्रदायिक हिंसा हुई है, वो ये कहते हैं कि सिर्फ़ सांप्रदायिक तनाव था जिसे क़ाबू में कर लिया गया.

हिंसा से ज़्यादा तनाव का सहारा

बिहार बीजेपी के अध्यक्ष नित्यानंद राय कहते हैं, "धर्म और आस्था व्यक्तिगत होती है, वो पार्टी आधारित नहीं होती है. भारतीय जनता पार्टी के किसी नेता का इसमें कोई हाथ नहीं है. मामला न्यायालय में है. दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा."
जानकार भी मानते हैं कि बदली परिस्थितियों में चूँकि पार्टी सरकार में है, इसलिए वो खुलकर सामने नहीं आएगी और उसका काम बजरंग दल, विश्व हिंदू परिषद जैसे संगठन करते रहेंगे.
पीटीआई के ब्यूरो चीफ़ नचिकेता नारायण कहते हैं, "भाजपा अपने हिंदूवादी एजेंडे को फैलाने के लिए ऐसा कुछ नहीं करेगी जिससे सरकार की बदनामी हो. तलवार मारने के लिए नहीं, डराने और तनाव फैलाने के लिए है. धार्मिक जुलूस की आड़ में उत्तेजक नारे लगाए जाते हैं ताकि दूसरा समुदाय डर जाए."
उनका कहना है कि भारत में अब सांप्रदायिक राजनीति तनाव फैलाने तक ही सीमित रहेगी. ये बड़े पैमाने पर हिंसा तक नहीं जाएगी, क्योंकि उसके बिना काम चल जाता है और सरकार पर नाकामी के आरोप नहीं लगते.
सामाजिक कार्यकर्ता उदय का भी यही मानना है. वे कहते हैं, "ये लोग बड़ा दंगा नहीं चाहते हैं, वे चाहते हैं कि छोटी-छोटी घटनाएँ हों, टेंशन हो और टेंशन को भी सामाजिक आधार दिया जाए. ये लोगों को ग़ुस्सा दिलाते हैं, नफ़रत पैदा करते हैं."
इस पूरे घटनाक्रम में एक और चौंकाने वाला तथ्य सामने आया है और वो है हिंसा में दलितों और पिछड़ों की भागीदारी. ये तथ्य भागलपुर में देखने को मिला, जहाँ बड़ी संख्या में इस समुदाय के लोगों की गिरफ़्तारी हुई थी. दरअसल, आरएसएस दलितों और पिछड़ों में बड़ा अभियान चलाता रहा है.
भागलपुर में आरएसएस के नेता सुबोध विश्वकर्मा कहते हैं, "दलितों के बीच संस्कार भारती काम करती है. हम उन्हें बताते हैं कि ब्राह्मणों का विरोध मत करो, ख़ुद ब्राह्मण बन जाओ. वैसे भी बिहार में जब भी दंगे होते हैं, कटते-मरते तो अनुसूचित जनजाति, जाति और बैकवर्ड के ही लोग हैं."
सामाजिक कार्यकर्ता उदय उनकी बात को आगे बढ़ाते हैं. वे बताते हैं, "दलित और पिछड़े को समाज में नेतृत्व करने का मौक़ा नहीं मिला. तो दंगे में ही सही, उन्हें नेतृत्व सौंपा जा रहा है, उनके नेतृत्व को क़बूल किया जा रहा है. उनको लगता है कि उनकी लीडरशिप में ये कार्रवाई हो रही है. जिनको नेतृत्व करने का स्पेस नहीं मिला, वो दंगे में आगे आ जा रहे हैं. भागलपुर में 1989 में भी हुआ था और इस साल रामनवमी में भी ऐसा हुआ है."
बिहार में कुछ-कुछ महीनों के अंतराल पर होती सांप्रदायिक हिंसा और पर्व-त्यौहार के मौक़े पर बढ़ते तनाव चिंता का विषय हैं. आशंका यही है कि लोकतंत्र के सबसे बड़े पर्व में उन्माद भड़काने की कोशिश हो सकती है क्योंकि सांप्रदायिकता की आग से सियासी कड़ाही गर्म होगी.

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