जानिए, क्यों PM मोदी के लिए लालू बने खतरा?
लालू प्रसाद यादव और उनके परिवार पर शुक्रवार को पड़े सीबीआई के छापों में कानूनी पहलू अपनी जगह हो सकता है लेकिन इन छापों ने 2019 के चुनाव के दौरान आक्रमक सियासत के संकेत दे दिए हैं। 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान दूध की जली भाजपा 2019 में छाछ भी फूक फूक कर पीना चाहती है।
देश की सियासत में इस समय ममता बनर्जी के अलावा लालू ही एक ऐसा चेहरा हैं जो न केवल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विरोध का प्रतीक हैं बल्कि संगठन पर लालू की मजबूत पकड़ है और अन्य पार्टियों के नेताओं के साथ लालू के गहरे रिश्ते हैं। लालू सियासत का एक ऐसा चेहरा हैं जो दागी तो हैं लेकिन ये दाग मोदी के विरोधियों को अच्छे लगते हैं और लालू मोदी के खिलाफ विपक्ष को लांमबद करने की क्षमता भी रखते हैं। यदि लालू ने लोकसभा चुनाव के लिए भी कांग्रेस और नीतीश कुमार को अपने साथ जोड़े रखा तो वे भाजपा के लिए कड़ी चुनौती पेश कर सकते हैं।
सोनिया का साथ
2001 के लोकसभा चुनाव से पहले व बाद में लालू प्रसाद यादव ने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के पक्ष में अलख जगाई थी और विपक्ष को भाजपा के खिलाफ लांमबद किया था। उस समय कांग्रेस के पास लोकसभा में भाजपा के मुकाबले महज 6 सीटें ज्यादा थी लेकिन कांग्रेस लालू जैसे सहयोगी की सियासत के दम पर केंद्र में सत्ता में आ गई थी। लालू व कांग्रेस का ये साथ 10 साल तक बना रहा। लालू के भ्रष्टाचार के मामले में साजायाफ्ता होने के बाद राहुल गांधी ने कांग्रेस और लालू के रिश्ते बिगाड़ दिए थे लेकिन 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में लालू और कांग्रेस फिर एक साथ आए जिसका दोनों पार्टियों को फायदा हुआ।
लालू को क्यों कमजोर करना चाहती है भाजपा
भाजपा प्रमुख अमित शाह को भलिभांति पता है कि 2019 के चुनाव में बिहार की 40 लोकसभा सीटों की अहमियत क्या होगी। अमित शाह ये भी जानते हैं कि यदि 2019 में जनता दल यू राष्ट्रीय जनता दल और कांग्रेस ने यदि मिलकर चुनाव लड़ा तो भाजपा बिहार में 2014 का प्रदर्शन नहीं दोहरा पाएगी। लिहाजा भाजपा एक तरफ बिहार के मुख्यमंत्र नीतीश कुमार के प्रति सदभाव दिखा रही है। जबकि दूसरी तरफ लालू के प्रति अक्रामक सियासत कर रही है।
2014 में क्या हुआ था
2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस राजद और जदयू अलग अलग चुनाव लड़े थे इन तीनों पार्टियों को कुल मिलाकर करीब 42 फिसदी वोट मिला था लेकिन ये तीनों पार्टियां 8 सीटों पर सिमट गई थी जबकि भाजपा ने रामविलास पासवान की लोक जन शक्ति पार्टि के साथ मिलकर चुनाव लड़ा और भाजपा, लोजपा और उपेंद्र कुशवाह की राष्ट्रीय लोक समता पार्टी 36 फिसद वोटों के साथ 31 सीटों पर काबिज हो गए। इन चुनावों के परिणाम नीतीश और लालू दोनों के लिए झटका थे क्योंकि 2014 के चुनाव से पहले नीतीश कुमार मोदी के कट्टर विरोधी चेहरे के तौर पर सामने आए थे।
2015 में पलटे समीकरण
2014के चुनाव के दौरान अपने सहयोगियों के साथ राज्य की 40 लोकसभा सीटों में से 231 सीटें जीतने वाली भाजपा 2015 में लालू और नीतीश की सियासी जुगल बंदी के सामने विधानसभा में 53 सीटों पर सिमट गई जबकि भाजपा की सहयोगी लोक जन शक्ति पार्टी को महज 2 सीटें मिली। इन चुनाव के दौरान कांग्रेस राष्ट्रीय जनता दल और जनता दल यू का वोट एक जुट हो गया और इस गठबंधन ने राज्य की 178 विधानसभा सीटों पर कब्जा कर लिया। भाजपा सम्मान जनक रूप से विपक्ष की भूमिका में भी नहीं आ पाई। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह दोनों 2019 में 2015 के नतीजों को दोबारा नहीं देखना चाहते लिहाजा लालू को सियासी रूप से खत्म करना भाजपा के लिए रणनीतिक तौर पर जरूरी है।
देश की सियासत में इस समय ममता बनर्जी के अलावा लालू ही एक ऐसा चेहरा हैं जो न केवल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विरोध का प्रतीक हैं बल्कि संगठन पर लालू की मजबूत पकड़ है और अन्य पार्टियों के नेताओं के साथ लालू के गहरे रिश्ते हैं। लालू सियासत का एक ऐसा चेहरा हैं जो दागी तो हैं लेकिन ये दाग मोदी के विरोधियों को अच्छे लगते हैं और लालू मोदी के खिलाफ विपक्ष को लांमबद करने की क्षमता भी रखते हैं। यदि लालू ने लोकसभा चुनाव के लिए भी कांग्रेस और नीतीश कुमार को अपने साथ जोड़े रखा तो वे भाजपा के लिए कड़ी चुनौती पेश कर सकते हैं।
सोनिया का साथ
2001 के लोकसभा चुनाव से पहले व बाद में लालू प्रसाद यादव ने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के पक्ष में अलख जगाई थी और विपक्ष को भाजपा के खिलाफ लांमबद किया था। उस समय कांग्रेस के पास लोकसभा में भाजपा के मुकाबले महज 6 सीटें ज्यादा थी लेकिन कांग्रेस लालू जैसे सहयोगी की सियासत के दम पर केंद्र में सत्ता में आ गई थी। लालू व कांग्रेस का ये साथ 10 साल तक बना रहा। लालू के भ्रष्टाचार के मामले में साजायाफ्ता होने के बाद राहुल गांधी ने कांग्रेस और लालू के रिश्ते बिगाड़ दिए थे लेकिन 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में लालू और कांग्रेस फिर एक साथ आए जिसका दोनों पार्टियों को फायदा हुआ।
लालू को क्यों कमजोर करना चाहती है भाजपा
भाजपा प्रमुख अमित शाह को भलिभांति पता है कि 2019 के चुनाव में बिहार की 40 लोकसभा सीटों की अहमियत क्या होगी। अमित शाह ये भी जानते हैं कि यदि 2019 में जनता दल यू राष्ट्रीय जनता दल और कांग्रेस ने यदि मिलकर चुनाव लड़ा तो भाजपा बिहार में 2014 का प्रदर्शन नहीं दोहरा पाएगी। लिहाजा भाजपा एक तरफ बिहार के मुख्यमंत्र नीतीश कुमार के प्रति सदभाव दिखा रही है। जबकि दूसरी तरफ लालू के प्रति अक्रामक सियासत कर रही है।
2014 में क्या हुआ था
2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस राजद और जदयू अलग अलग चुनाव लड़े थे इन तीनों पार्टियों को कुल मिलाकर करीब 42 फिसदी वोट मिला था लेकिन ये तीनों पार्टियां 8 सीटों पर सिमट गई थी जबकि भाजपा ने रामविलास पासवान की लोक जन शक्ति पार्टि के साथ मिलकर चुनाव लड़ा और भाजपा, लोजपा और उपेंद्र कुशवाह की राष्ट्रीय लोक समता पार्टी 36 फिसद वोटों के साथ 31 सीटों पर काबिज हो गए। इन चुनावों के परिणाम नीतीश और लालू दोनों के लिए झटका थे क्योंकि 2014 के चुनाव से पहले नीतीश कुमार मोदी के कट्टर विरोधी चेहरे के तौर पर सामने आए थे।
2015 में पलटे समीकरण
2014के चुनाव के दौरान अपने सहयोगियों के साथ राज्य की 40 लोकसभा सीटों में से 231 सीटें जीतने वाली भाजपा 2015 में लालू और नीतीश की सियासी जुगल बंदी के सामने विधानसभा में 53 सीटों पर सिमट गई जबकि भाजपा की सहयोगी लोक जन शक्ति पार्टी को महज 2 सीटें मिली। इन चुनाव के दौरान कांग्रेस राष्ट्रीय जनता दल और जनता दल यू का वोट एक जुट हो गया और इस गठबंधन ने राज्य की 178 विधानसभा सीटों पर कब्जा कर लिया। भाजपा सम्मान जनक रूप से विपक्ष की भूमिका में भी नहीं आ पाई। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह दोनों 2019 में 2015 के नतीजों को दोबारा नहीं देखना चाहते लिहाजा लालू को सियासी रूप से खत्म करना भाजपा के लिए रणनीतिक तौर पर जरूरी है।