उत्तर प्रदेश में भाजपा की महाविजय
जनवरी 2016 की एक शाम अमित शाह अपने सरकारी बंगले के लॉन में कुछ पत्रकारों से एक सरकारी योजना पर बात कर रहे थे.
माहौल थोड़ा हल्का हुआ तो मैंने पूछा, "अमित जी, भाजपा अध्यक्ष पद के लिए चयन कब होने को है?"
जवाब मिला, "जब चुनाव की तारीख़ घोषित होगी, मैं अपना नामांकन भर दूंगा."
जवाब एकदम संतुलित था, लेकिन मेरे साथ-साथ कुछ दूसरे पत्रकारों के ज़हन में भी यही सवाल था.
वजह थी आरएसएस और ख़ुद भाजपा के भीतर हाल के चुनावी नतीजों पर बढ़ती सुगबुगाहट.
कुछ ही महीने पहले बिहार विधानसभा चुनाव हुए थे और भाजपा की करारी शिकस्त हुई थी.
अमित शाह के लिए ये बड़ा ही नहीं 'निर्णायक झटका' भी कहा जा रहा था.
2014 के आम चुनाव में भाजपा की और नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री पद की दावेदारी कैम्पेन में अमित शाह की प्रमुख भूमिका थी.
उत्तर प्रदेश में लोकसभा सीटों के जो अप्रत्याशित परिणाम दिखे थे उसके लिए अमित शाह के बूथ मैनेजमेंट और संगठन मज़बूत बनाने की कोशिश को श्रेय दिया गया था.
लेकिन तुरंत बाद हुए दिल्ली विधानसभा चुनाव में केजरीवाल की आम आदमी पार्टी, अमित शाह की रणनीति को धाराशाई करने में कोसों आगे रही.
इसके बाद नरेंद्र मोदी के 'ख़ास प्रतिद्वंद्वी' नीतीश कुमार के बिहार में चुनाव होने थे.
ज़ाहिर था, मोदी अपने सबसे ख़ास 'सलाहकार' अमित शाह को इसकी भी कमान सौंपते और शाह पार्टी अध्यक्ष भी थे.
महीनों बिहार में डेरा डालने, मोदी की तमाम रैलियों और बिहार को 'हज़ारों करोड़ रुपए के केंद्रीय पैकेज' की घोषणा के बावजूद बिहार नितीश और लालू की झोली में गया.
अब तो आलम 'करो या मरो' की लड़ाई का था.
2019 में भारत में आम चुनाव होने हैं और भारतीय जनता पार्टी को इस चुनाव में जाने के लिए यूपी का 'सहारा' चाहिए था.
दोबारा दारोमदार अमित शाह के कन्धों पर था, लेकिन कुछ चुनावी शिकस्तों के बोझ तले.
अमित शाह ने वही किया जो उन्होंने 2013 में यूपी में आज़माया था.
उन्होंने दो लोगों को ठीक वही काम 2014 में ही थमा दिया जो लोकसभा चुनाव में थमाया था.
ओम माथुर और सुनील बंसल भाजपा के ऐसे लोग रहे हैं जिन्हें पर्दे के पीछे रह कर काम करने में मज़ा आता है.
इन दोनों ने अमित शाह के साथ मिलकर 2014 के आम चुनावों में एक-एक बूथ पर रिसर्च की थी और बूथ प्रभारी नियुक्त किए थे.
इनमें से ज़्यादातर प्रभारियों का मिशन 2017 में जीत भी था.
जैसे-जैसे अमित शाह के पास बूथों का फ़ीडबैक आता गया उनका भरोसा बढ़ता गया कि चुनाव 'नरेंद्र भाई मोदी' के नाम पर ही लड़ना है.
न किसी सीएम उम्मीदवार का नाम उछालने की 'ग़लती' करनी है और न ही किसी 'बड़े कद्दावर' नेता को मिशन यूपी की कमान 'पूरी तरह' सौंपनी है.
गठबंधनों पर भी विचार होता रहा.
बिहार के जातीय समीकरण में 'मात' खाने के बाद यूपी के दलित वोटरों, पिछड़े वर्ग के मतदाताओं और किसानों तक पहुँचने की अलग रणनीति बनाई गई.
अगर मतदाताओं के दिमाग़ से 'सर्जिकल स्ट्राइक की कथित सफलता' उतर गई थी तो भाजपा के कोर ग्रुप में ये बातें हो रहीं थीं कि 'नोटबंदी' का फ़ायदा तो मिलेगा ही.
अध्यक्ष अमित शाह ने अपने स्टार प्रचारकों से नोटबंदी, भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम और विकास करने की कटिबद्धता जैसी बातों को वोटरों तक पहुँचाने के लिए कहा.
उत्तराखंड और यूपी में अमित शाह की निर्णायक रणनीति शायद ये भी रही कि उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ठीक उसी तरह प्रचार करने के लिए मना लिया जैसा प्रचार मोदी ने 2014 में किया था.
नतीजा एक और 'मोदी लहर' के रूप में सामने आया जिसे खुद भाजपा के लोग भी पूरी तरह भांप नहीं पाए थे.
अमित शाह को एकाएक 2019 क़रीब भी लग रहा होगा और पहुंच में भी.
अगली मुलाक़ात में मैं अमित शाह से 2019 की रणनीति पर सवाल करूँगा.
उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा और मणिपुर विधानसभा चुनाव के नतीजे कुछ स्पष्ट राजनीतिक संकेत देते हैं. जानते हैं चुनावी नतीजों के पांच साफ़ संकेत क्या हैं.
1. कद्दावर नेता
भारतीय जनता पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने मीडिया को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को 'आज़ाद भारत का सबसे लोकप्रिय नेता' करार दिया.
उत्तर प्रदेश में किसी एक पार्टी का ऐसा प्रदर्शन और वो भी तब जब वोट पार्टी नहीं प्रधानमंत्री मोदी के नाम पर मांगा गया हो अपने आप में अप्रत्याशित है.
राजनीतिक विश्लेषक अनिल यादव के मुताबिक, "मोदी की राजनीति हिंदुत्व की है, उनकी तुलना इंदिरा गांधी से करना सही नहीं होगा, पर लोकप्रियता के पैमाने पर मोदी ने इंदिरा को भी पीछे छोड़ दिया है."
वरिष्ठ पत्रकार राजदीप सरदेसाई ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को 'सपनों का सौदागर' और उनकी रणनीति को '360 डिग्री की राजनीति' बताया. उन्होंने कहा, "वे रोड शो भी करना जानते हैं, सोशल मीडिया पर दमदार उपस्थिति दर्ज कराते हैं और राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों को धीरे-धीरे कमज़ोर करने का खेल भी उन्हें आता है."
2. विपक्ष का सफ़ाया
भारतीय जनता पार्टी के सामने कोई ठोस विपक्ष नहीं दिख रहा. बिहार और दिल्ली को छोड़ दें तो एक के बाद एक बीजेपी कई राज्य अपने नाम करती जा रही है.
कांग्रेस की पंजाब की जीत ने भी बीजेपी को ही फ़ायदा दिया है क्योंकि इसने आम आदमी पार्टी की सरकार बनने नहीं दी.
बीबीसी उर्दू सेवा के शकील अख़्तर के मुताबिक, "कांग्रेस इस व़क्त एक कमज़ोर होती पार्टी है और आम आदमी पार्टी आगे बढ़ती पार्टी है, पंजाब में अगर उन्हें जीत मिलती तो ये उन्हें एक वैकल्पिक राजनीति की सोच को आगे ले जाने का मौका देती."
उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी भी 19 सीटों पर सिमटती दिख रही है. ऐसे में राज्यसभा में और अगले राष्ट्रपति चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ख़ुद को बहुत मज़बूत स्थिति में पाती है.
3. परिवारवाद-वंशवाद को ना
समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के साथ आने को दो युवा नेताओं के गठबंधन की तरह नहीं बल्कि परिवारवाद और वंशवाद की राजनीति के तौर पर देखा गया.
वरिष्ठ पत्रकार सुनीता ऐरॉन के मुताबिक ये साफ़ हो गया है कि अखिलेश यादव और राहुल गांधी के मुकाबले "नरेंद्र मोदी बड़े 'यूथ आइकन' हैं, 2014 में भी युवा वर्ग ने नरेंद्र मोदी को पसंद किया और अब एक बार फिर ये साबित हो गया है कि अखिलेश-राहुल की लोकप्रियता बहुत सीमित है."
एक ओर कांग्रेस के कार्यकर्ता में अपने नेतृत्व के प्रति अविश्वास दिखता है तो वहीं आम जनता भी 'डिजिटल इंडिया' और 'स्टार्टअप इंडिया' के दौर में अपने नेता से कुछ और चाहती है.
राजनीतिक विश्लेषक राधिका रामाशेषन ने बताया, "नरेंद्र मोदी का अपनी पार्टी में इतनी ऊंचाई तक जाना उन्हें लोगों की नज़र में एक इज़्ज़त देता है."
4. कड़े फ़ैसले के बावजूद समर्थन
नोटबंदी के फ़ैसले से सबसे बड़ा झटका भारतीय जनता पार्टी के प्रमुख वोट बैंक यानी व्यापारी वर्ग को लगा, इसके बावजूद मत उनके समर्थन में ही पड़े.
वरिष्ठ पत्रकार स्मिता गुप्ता कहती हैं, "ये फ़ैसला नुक़सान भी पहुंचा सकता था पर इसके ज़रिए नरेंद्र मोदी ने अपनी तरह की 'सोशल इंजीनियरिंग' की जो सबसे ग़रीब तबके को अपने साथ लाने की थी."
नोटबंदी के व़क्त सबसे ठोस तरीके से दिया गया संदेश ये था कि ये अमीरों की ग़लत तरीके से की गई कमाई को बाहर निकालने का तरीका है और इससे उनको नुकसान होगा.
राधिका रामाशेषन के मुताबिक सात चरण में फैले मतदान की वजह से नोटबंदी का असर धीरे-धीरे कम महसूस होने लगा और नरेंद्र मोदी का कद ऊंचा.
5.पार्टी से बड़ा नेता
कई विश्लेषकों का मानना है कि ख़ास तौर पर उत्तर प्रदेश में ऊपरी तौर पर चाहे विकास और केंद्र में कद्दावर नेता की बात हुई हो, लेकिन दबी आवाज़ में ये चुनाव हिंदू बनाम मुसलमान था.
वरिष्ठ पत्रकार अनिल यादव के मुताबिक, "प्रधानमंत्री मोदी ही आखिरी चरण में इसे अपने आक्रामक भाषण और 'श्मशान', 'कसाब' से जुड़े जुमलों से आगे लेकर गए."
स्मिता गुप्ता कहती हैं, "बिहार में जब ऐसा हुआ तो नीतीश और लालू दोनों ने ठीक तरीके से ठोस जवाब दिए और उत्तर प्रदेश और बिहार जैसी जगह पर राजनीतिक स्तर पर सजग वोटर भाषणों को ध्यान से सुन, विश्लेषण कर मापता रहता है."
वरिष्ठ पत्रकार राजदीप सरदेसाई के मुताबिक, "दरअसल, पहले भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता, बाद में गुजरात के मुख्यमंत्री और अब प्रधानमंत्री के तौर पर अपने सफ़र में नरेंद्र मोदी खुद को रिइन्वेंट करते रहे हैं, लगातार बदलाव ला रहे हैं. वे कुछ ना कुछ करते रहे हैं जिससे लगता है कि उनकी गाड़ी थम ही नहीं रही है."
इसी लगातार बदलाव की चमक के बिना मोदी के अलावा देश के बाक़ी नेता और पार्टियां इस व़क्त बेहद फ़ीकी दिखाई पड़ रही हैं.
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