रेप की शिकार भंवरी देवी को 25 साल से इंसाफ़ की तलाश

भंवरी देवी बलात्कार कांड को लोग भूले नहीं होंगे. राजस्थान में 25 साल पहले एक अनपढ़ और पिछड़ी जाति की महिला बलात्कार का शिकार हुई.

रेप का आरोप अगड़ी जाति के उनके पड़ोसियों पर लगा. इंसाफ़ की लड़ाई में उस औरत ने हार मानने से इनकार कर दिया.
वो भंवरी देवी का मुकदमा ही था जिसकी वजह से सुप्रीम कोर्ट को दफ़्तरों में यौन उत्पीड़न के मामलों से निपटने के लिए दिशा-निर्देश जारी करना पड़ा था.
लेकिन उनपर हमला करने वाले आज़ाद घूमते रहे. निचली अदालत ने उन्हें बलात्कार के आरोपों से बरी कर दिया.
निचली अदालत के फ़ैसले के ख़िलाफ़ भंवरी देवी की अपील हाई कोर्ट में लंबित है. भंवरी देवी की अपील पर पिछले 22 सालों में केवल एक बार सुनवाई हो पाई है.
इस बीच दो अभियुक्तों की मौत हो चुकी है. भंवरी देवी पर ये हमला 22 सितंबर, 1992 को हुआ था. जाहिर है इस बीच काफी वक्त गुजर चुका है.

ताज़ा हैं घाव

भंवरी देवी अब 56 साल की हैं. उन्हें वे दिन और तारीखें ठीक से याद नहीं है, लेकिन हमले के घाव उनके जेहन में अब भी ताजा हैं.
उन्होंने बताया, "वो शाम का वक्त था. मैं और मेरे पति खेत में काम कर रहे थे. तभी उन लोगों ने डंडे से उन्हें पीटना शुरू कर दिया. वे पांच लोग थे."
जयपुर से 50 किलोमीटर की दूरी पर भटेरी गांव में उनका घर है. यहीं उनसे मेरी मुलाकात हुई.
भंवरी देवी आगे कहती हैं, "मैं अपने पति के पास मदद के लिए दौड़ी. उन लोगों से रहम की मिन्नत की. लेकिन उनमें से दो लोगों ने मेरे पति को बांध कर गिरा दिया. बाक़ी तीनों बलात्कार करने के लिए मेरी तरफ मुड़ गए."
ये हमलावर गांव के प्रभावशाली गुज्जर तबके के थे. भंवरी देवी और उनके पति मोहन लाल प्रजापत गांव की पिछड़ी कुम्हार जाति से थे.
कुछ महीनों पहले एक नौ महीने की गुज्जर लड़की की शादी रोकने की कोशिश के कारण गांव के ये दबंग लोग भंवरी देवी के परिवार से नाराज थे.
जयपुर में मानवाधिकारों के लिए काम करने वालीं रेणुका पामेचा बताती हैं, "राज्य सरकार के महिला विकास कार्यक्रम में भंवरी देवी 1985 से ही 'साथिन' के तौर पर काम कर रही थीं."

सामाजिक बुराइयां

उनका काम गांव के हर घर में जाकर सामाजिक बुराइयों के खिलाफ अभियान चलाना था. वो महिलाओं को साफ-सफाई, परिवार नियोजन और लड़कियों को स्कूल भेजने के फायदों के बारे में बताती थीं.
इन सामाजिक बुराइयों में भ्रूण हत्या, दहेज और बाल विवाह जैसी कुरीतियां भी शामिल हैं.
राजस्थान में बाल विवाह की पुरानी परंपरा रही है. हजारों बच्चे हर साल कमसिन उम्र में ही ब्याह दिए जाते हैं. उनमें से कई की उम्र तो कुछ महीने की ही होती है.
भंवरी देवी की अपनी शादी भी कम उम्र में हो गई थी. उन्होंने मुझे बताया कि शादी के वक्त वो केवल पांच या छह साल की थीं और उनके पति आठ या नौ साल के.
बाल विवाह के खिलाफ उनका अभियान पितृ सत्तात्मक समाज या सामंतवादी मानसिकता को चुनौती नहीं थी बल्कि वो केवल अपना काम कर रही थीं.
महिला विकास कार्यक्रम के ट्रेनिंग प्रोग्राम का काम देख चुकी डॉक्टर प्रीतम पाल कहती हैं, "उन्हें मालूम था कि गुज्जरों के मामलों में उलझने का उलटा नतीजा हो सकता है."
डॉक्टर प्रीतम पाल भंवरी देवी के साथ काम कर चुकी हैं. लेकिन भंवरी देवी का कहना है कि उनके पास कोई विकल्प नहीं था.
उन्होंने बताया, "मैंने अधिकारियों को बताया कि ये खतरनाक लोग हैं और वे मुझे परेशान करेंगे. लेकिन उन्होंने कहा कि हमें हर बाल विवाह को रोकना है. शादी रोकने के लिए एक पुलिसवाला भेजा गया था. वह आया और मिठाई खाकर चला गया."

जुझारू महिला

भारत जैसे पारंपरिक समाज में आज भी लड़कियां रेप के बारे में बात करने से हिचकती हैं तो सोचिए कि 25 साल पहले कितनी बदतर रही होगी.
डॉक्टर पाल कहती हैं, "लेकिन भंवरी देवी एक जुझारू महिला हैं." उन्होंने अपनी आपबीती दुनिया को बताई. उन पर झूठ बोलने के आरोप लगे. उन पर हमला करने वालों ने बलात्कार के आरोप से इनकार किया और कहा कि केवल कहा-सुनी हुई थी.
डॉक्टर पाल बताती हैं कि पुलिस ने उनका मजाक उड़ाया. उनकी शिकायत को गंभीरता से नहीं लिया और तफ्तीश में लीपापोती कर दी. उनकी मेडिकल जांच 52 घंटे बाद की गई जबकि ये 24 घंटे के भीतर किया जाना चाहिए था.
उनके जख्मों का ब्योरा दर्ज नहीं किया गया और दर्द व पीड़ा की उनकी शिकायत को नजरअंदाज कर दिया गया.
जब स्थानीय अखबारों ने भंवरी देवी की घटना को रिपोर्ट किया और महिला कार्यकर्ताओं के विरोध के बाद ये मामला केंद्रीय जांच ब्यूरो को सौंप दिया गया.

मुकदमा

अपराध के पांच सालों के बाद आखिरकार पांचों आरोपी गिरफ्तार कर लिए गए. उन पर यंत्रणा देने, हमला करने, साजिश रचने और गैंग रेप के आरोप लगाए गए.
1993 में आरोपियों को जमानत देने से इनकार करते हुए राजस्थान हाई कोर्ट के जस्टिस एनएम तिबरेवाल ने अपने फैसले में लिखा, "मैं मानता हूं कि अभियुक्त रामकर्ण की नाबालिग बेटी की शादी को रोकने की कोशिश के कारण भंवरी देवी का गैंग रेप बदले की नियत से किया गया था."
लेकिन चीजें यहां से बिगड़ती चली गईं. ट्रायल के दौरान बिना कोई कारण बताये पांच बार जज बदले गए और नवंबर, 1995 में अभियुक्तों को बलात्कार के आरोपों से बरी कर दिया गया. उन्हें मामूली अपराधों में दोषी करार दिया गया और वे महज नौ महीने की सजा पाकर जेल से छूट गए.
जयपुर का गैर सरकारी संगठन 'विशाखा' भंवरी देवी को इंसाफ दिलाने की मुहिम का हिस्सा रहा है. 'विशाखा' से जुड़े भारत कहते हैं, "ये फैसला संदेहों भरा था." भारत अभियुक्तों को रिहा करने वाले अदालती फैसले में दी गई 'अजीबोगरीब दलीलों' का जिक्र करते हैं.
  • गांव का प्रधान बलात्कार नहीं कर सकता.
  • अलग-अलग जाति के पुरुष गैंग रेप में शामिल नहीं हो सकते.
  • 60-70 साल के 'बुजुर्ग' बलात्कार नहीं कर सकते.
  • एक पुरुष अपने किसी रिश्तेदार के सामने रेप नहीं कर सकता. (ये दलील चाचा-भतीजे की जोड़ी के संदर्भ में दी गई थी)
  • अगड़ी जाति का कोई पुरुष किसी पिछड़ी जाति की महिला का रेप नहीं कर सकता क्योंकि वह 'अशुद्ध' होती है.
  • भंवरी देवी के पति चुपचाप खामोशी से अपनी पत्नी का बलात्कार होते हुए नहीं देख सकते थे. 
भारत और दुनिया भर में इस फैसले की कड़ी आलोचना हुई. जयपुर में बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हुए.
कांग्रेस पार्टी की सांसद गिरिजा व्यास ने इस फैसले को राजनीति से प्रेरित बताया.

इंसाफ़ अभी दूर

इस फैसले के समय राष्ट्रीय महिला आयोग की प्रमुख मोहिनी गिरि ने कहा कि अदालत का फैसला न्याय के सिद्धांतों के खिलाफ है और इस मामले में दखल देने की अपील करते हुए भारत के चीफ जस्टिस को चिट्ठी भी लिखी.
राज्य सरकार शुरू में इस फैसले के विरोध में अपील करने से हिचकिचा रही थी लेकिन राजस्थान हाई कोर्ट के ऑर्डर को आखिरकार चुनौती दी गई.
लेकिन पिछले 22 साल में इस मामले की केवल एक तारीख पर सुनवाई हुई है.
प्रोफेसर पामेचा कहती हैं कि भंवरी देवी के लिए इंसाफ अभी भी हकीकत से दूर है लेकिन उन्हीं की वजह से लाखों भारतीय महिलाओं को उनके दफ्तरों में यौन उत्पीड़न से कानूनी संरक्षण मिला हुआ है.
प्रोफेसर पामेचा ने कहा, "राज्य सरकार ने भंवरी देवी की मदद करने से ये कहते हुए इनकार कर दिया कि हमला उनके खेत में हुआ था और वे एक नियोक्ता के तौर पर इसके लिए जिम्मेदार नहीं हैं. हमने कहा कि सरकार को इसलिए जिम्मेदारी लेनी चाहिए क्योंकि ये हमला उनके काम की वजह से उनपर हुआ था."
"इसके बाद जयपुर के कुछ कार्यकर्ताओं और दिल्ली के कुछ संगठनों ने सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दायर की. याचिका में काम करने की जगह को महिलाओं के लिए सुरक्षित बनाने और हर कदम पर उसकी सुरक्षा की जिम्मेदारी नियोक्ता की सुनिश्चित करने की मांग की गई."
साल 1997 में सुप्रीम ने कोर्ट विशाखा गाइडलाइंस जारी किए जिसके तहत वर्क प्लेस पर यौन उत्पीड़न से महिलाओं की सुरक्षा के लिए नियम कायदे बनाए गए.
2013 में संसद ने विशाखा जजमेंट की बुनियाद पर दफ्तरों में महिलाओं के संरक्षण के लिए एक कानून पारित किया.
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