क्या यूपी में अमित शाह के लिए बजने लगी है ख़तरे की घंटी?


समाजवादी कुनबे में कलह और मायावती के ख़िलाफ़ बसपा में बगावत के बाद ऐसा लगने लगा था कि भाजपा यूपी का मैदान मार लेगी लेकिन होने कुछ और जा रहा है.
पिछले लोकसभा चुनाव के सूपड़ा साफ नतीजों से मिथ बना था कि प्रधानमंत्री मोदी जो सोचते हैं भाजपा अध्यक्ष अमित शाह उसे कर दिखाते हैं लेकिन भाजपा की सारी पुरानी बीमारियां अचानक उभर आई हैं.
सबसे बड़ा सूबा यूपी प्रधानमंत्री के दाहिने हाथ के लिए खतरे की घंटी बजाने लगा है. इसे कहीं बाहर नहीं, खुद भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के भीतर सुना जा सकता है.
1. यूपी विधानसभा चुनाव के टिकट बांटने का एकाधिकार चुनाव समिति की दो बैठकों के बाद अमित शाह को दिया गया था. टिकट ऐसे बंटे कि पार्टी में उनकी धमक ही खत्म हो गई. नाराज कार्यकर्ता एयरपोर्ट तक पीछा करने लगे.
प्रधानमंत्री के चुनाव क्षेत्र बनारस में लगातार सात बार के विधायक श्यामदेव रायचौधरी "दादा" का टिकट कटने के बाद से प्रदर्शन हो रहे हैं. मनमाने टिकट बंटवारे पर आरएसएस के यूपी में सक्रिय छह में से चार क्षेत्रीय प्रचारकों ने नाराजगी जताई है.
यह पहला मौका है जब पार्टी कार्यकर्ता इतनी तादाद में टिकट बंटवारे के ख़िलाफ़ नेताओं की गाड़ियों के आगे लेटकर रास्ता रोक रहे हैं, अमित शाह समेत प्रदेश अध्यक्ष केशव मौर्य और प्रदेश प्रभारी ओम माथुर के पुतले फूंके जा रहे हैं.
दलबदलुओं और पार्टी के बड़े नेताओं के बेटे-बेटियों को टिकट देना मुद्दा बन रहा है. भाजपा में जातिवादी रंग की गुटबाजी पुरानी है जिसके सूत्रधार एक बात पर एकमत हैं कि स्थानीय नेताओं की नहीं सुनने वाले अमित शाह का हद से अधिक दखल बंद होना चाहिए.
2. भाजपा के पास कोई ऐसा दमदार नेता नहीं था जिसे भावी मुख्यमंत्री के रूप में पेश किया जा सके लिहाजा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और प्रधानमंत्री मोदी के चेहरे ही आमने-सामने हैं.
इस स्थिति का फ़ायदा उठाते हुए सांसद, गोरखनाथ पीठ के महंत आदित्यनाथ की हिंदू युवा वाहिनी ने "देश में मोदी यूपी में योगी" के नारे के साथ पार्टी के समांतर उम्मीदवार तक उतार दिए हैं.
प्रत्यक्ष तौर आदित्यनाथ खुद मुख्यमंत्री पद की दावेदारी करने से झेंप रहे हैं लेकिन पक्का है कि उनकी नाराजगी पूर्वांचल में भाजपा का खेल बिगाड़ेगी. अगर भाजपा के पास कोई मुख्यमंत्री पद के लिए चेहरा होता तो नाकामी का ठीकरा उसके सिर फूटता लेकिन अब नतीजों के जिम्मेदार सिर्फ और सिर्फ अमित शाह होंगे.
3. पहले पार्टी ने पाकिस्तान के अंदर घुसकर सर्जिकल स्ट्राइक और नोटबंदी के जरिए कालेधन के खात्मे को मुद्दा बनाया था लेकिन अब दोनों एजेंडे से ग़ायब हो रहे हैं. सभाओं में भाजपा नेता जब नोटबंदी के फ़ायदों का जिक्र करते हैं तब चुप्पी छाई रहती है.
इसके बजाय अब पुराने आजमाए नुस्खे यानी धार्मिक ध्रुवीकरण पर ज़ोर है. मुज़फ्फ़रनगर के कैराना से हिंदुओं के तथाकथित पलायन और भाजपा की सरकार बनने पर माफिया मुख्तार अंसारी, अतीक अहमद और आज़म ख़ान को जेल भेजने को मुद्दा बनाया जा रहा है.
भाजपा ने इस बार एक भी मुसलमान को टिकट नहीं दिया है और इससे भी हैरत की बात यह है कि धार्मिक ध्रुवीकरण के बयानों पर मुसलमानों की तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं हो रही है.
4. भाजपा पांच साल से अखिलेश यादव की सरकार द्वारा छात्रों को लैपटॉप बांटने को दिल बहलाने वाला झुनझुना बता रही थी.
लेकिन मुद्दों के बेअसर होने के कारण लैपटॉप और फ्री डेटा बांटना भाजपा के चुनाव घोषणापत्र में सबसे ऊपर आ गया है. इसे समाजवादी पार्टी की नकल के रूप में देखा जा रहा है.
5. चुनाव में सामने प्रधानमंत्री मोदी की तीन साल पुरानी सरकार है इसलिए सपा-कांग्रेस और बसपा दोनों भाजपा के नए वायदों को जवाब में उन वायदों की याद दिला रहे हैं जो पिछले लोकसभा चुनाव के समय किए गए थे.
इनमें सबसे ऊपर कालाधन और हर वोटर के खाते में पंद्रह लाख देने का मसला सबसे ऊपर है जिसे अमित शाह पहले ही जुमला बताकर पार्टी के भीतर पर्याप्त आलोचना पा चुके हैं.

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